संत जिस निर्विकार को धारण कर लेते हैं संत का साथ करने वाले को वह अनायास प्रसाद रूप में मिल जाता है। इसी को संत कृपा और संत महिमा कहते हैं। गरुड़ जी ने पूछा महाराज! कौन-सा दुख सबसे बड़ा है और कौन-सा सुख सबसे बड़ा है? बड़ दुख कवन कवन सुख भारी?

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक-श्री रामकिंकर विचार मिशन)। संत संगति का सुख अनुपम होता है। सद्-असद् का विवेक न होने पर हम राग और द्वेष की दृष्टि से संसार को देखने लग जाते हैं। परिणामत: हम समत्व में स्थित नहीं रह जाते। भगवान श्री राम ने शबरी के समक्ष सातवीं प्रकार की भक्ति का उपदेश करते हुए कहा कि मेरा भक्त मुझसे भी अधिक संत को मानता और धारण करता है।

इसका तात्पर्य है कि ईश्वर की सर्वव्यापकता के सिद्धांत के नाम पर कहीं कोई अपवित्र को ही धारण न कर लें। पृथ्वी पर संत भगवान के सगुण रूप ही होते हैं, क्योंकि सृष्टि तो गुण-दोष से मिलकर ही बनी हुई है। केवल गुण या केवल दोष से सृजन संभव ही नहीं है। उसके लिए गुण और दोष दोनों का आश्रय लेना ही होता है, पर ध्यान केवल यह रखना है कि ग्रहण करते समय सद् को ग्रहण करके असद् का त्याग कर दिया जाता है। संत ही विभाजन करने का सही माध्यम होते हैं :

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कहहिं बेद इतिहास पुराना।

बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना।

जड़ चेतन गुन दोष मय

बिस्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन कहहिं पय

परिहरि बारि बिकार।।

संत जिस निर्विकार को धारण कर लेते हैं, संत का साथ करने वाले को वह अनायास प्रसाद रूप में मिल जाता है। इसी को संत कृपा और संत महिमा कहते हैं। गरुड़ जी ने पूछा, महाराज! कौन-सा दुख सबसे बड़ा है और कौन-सा सुख सबसे बड़ा है? बड़ दुख कवन कवन सुख भारी?

तब जीवन को बिल्कुल नई दिशा देते हुए काकभुशुण्डि जी बोले, हे पक्षीराज! सबसे बड़ा दुख दरिद्रता है और संत का मिलना सबसे बड़ा सुख है। संसार मानता है कि जिसके पास धन का अभाव है, वह दुखी है और जिसके पास बहुत धन है वह सुखी है, पर श्रीरामचरितमानस कहता है कि यह निर्णय सत्य नहीं है। यदि सत्य और तथ्य ऐसा ही होता तो संसार के सारे धनी बहुत सुखी होते और जितने निर्धन हैं, वे सब दुखी दिखाई देते!

जो संसार केवल जड़ प्रकृति को ही सत्य के रूप में देखता है, उसमें परम तत्व को नहीं देख पाता, वह परम सत्य के ज्ञान से वंचित रह जाता है, क्योंकि जिसके पास अधिक है, जो स्वयं को उसका मालिक मानता है, वह सबसे चरम पर है। महत्वपूर्ण स्थिति। उसका दूसरा दुःख यह है कि उसे अब भी यह समझ नहीं आता कि दूसरों के पास हमसे अधिक धन क्यों है।

संत की संगति का अंतिम परिणाम यह होता है कि साधक को दुख से सुख की प्राप्ति होती है। संत हमें सुख के स्रोत ईश्वर के प्रति समर्पित करवाते हैं। यह ब्रह्मविद्या है, मन, बुद्धि, आत्मा, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश आठ जड़ प्रकृतियाँ हैं। ऋषि साधक को अपनी चेतना का एहसास कराते हैं, और फिर जड़ प्रकृति भी सुख देती है। खोजने वाला, देने वाला, चेतना का रूप धारण कर लेता है, जो सत्य, चेतना और आनंद का अभिन्न रूप बन जाता है।

किसी की तुलना में अपने को प्रमाणित करने की इच्छा एक मानस रोग है, जिसके कारण हम मानसिक रूप से जीवन की हर घटना के अर्थ को अनर्थ के रूप में परिणत करके लगाते हैं और हर हाल में दूसरे को दोषी ठहराकर सुखी होना चाहते हैं। यदि दरिद्रता का अर्थ धन की कमी होता तो काकभुशुण्डि जी यह कहते कि जिसके पास धन की कमी है, वह दरिद्रता के कारण दुखी है और जिसके पास बहुत धन है, वह सुखी है। किंतु वे कहते हैं कि धन का अभाव तो दरिद्रता है, पर संत से मिलने से बड़ा कोई सुख नहीं है :

संत संग अपवर्ग कर कामी भव कर पंथ।

कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सद्ग्रंथ।।

संसारी का साथ बंधन का कारण होता है और संत का साथ मुक्ति का कारक होता है। संत उस चंदन के समान होता है कि वह उसको काटने वाली कुल्हाड़ी में भी अपनी सुगंध दे देता है, पर कुल्हाड़ी स्वयं किसी को सुगंध नहीं दे सकती है। वह तो केवल काटने के ही काम आती है। संत का हृदय सरोवर के उस पवित्र जल के समान है, जिसमें चार घाट हैं। जहां ज्ञान, भक्ति, कर्म और शरणागति के सूत्र सहज उपलब्ध हो जाते हैं। संत, शंभु और विष्णु की यदि कहीं निंदा हो रही हो तो मर्यादा यही है कि वहां ठहरना नहीं चाहिए। इसलिए संत का मिलना सर्वश्रेष्ठ है।