1973 के नोबेल शांति पुरस्कार को (1973 Nobel Peace Prize ) इतिहास का सबसे खराब पुरस्कार माना जाता है। समाचार एजेंसी AFP के अनुसार नॉर्वेजियन नोबेल इतिहासकार एस्ले स्वेन ने बताया कि 16 अक्टूबर 1973 को नोबेल शांति पुरस्कार के नामों की घोषणा हुई जिसने सभी को हैरान कर दिया था। इसे अब तक के सबसे विवादास्पद नोबेल पुरस्कार में से एक माना जाता है। जानिए क्या था इसका कारण।

एएफपी, ओस्लो। 1973 Nobel Peace Prize: आज से ठीक 50 साल पहले 1973 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए दो नाम जारी किए गए। पहला- तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर और दूसरा -उत्तरी वियतनाम के मुख्य शांति वार्ताकार ले डक थो।

बता दें कि इन दो को दिया गया नोबेल शांति पुरस्कार अब तक के सबसे विवादास्पद नोबेल पुरस्कार में से एक माना जाता है। ऐसा हम इसलिए कह रहे है क्योंकि दोनों पुरस्कार विजेताओं में से किसी ने भी इस प्राइज को अपनाया ही नहीं। जी हां, एक ने इस पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया तो दूसरे ने ओस्लो जाने की हिम्मत ही नहीं की। वहीं, समिति के पांच सदस्यों में से दो ने गुस्से में इस्तीफा तक दे डाला।

नोबेल शांति पुरस्कार के पूरे इतिहास में इसे सबसे खराब पुरस्कार

समचार एजेंसी AFP से बात करते हुए नॉर्वेजियन नोबेल इतिहासकार एस्ले स्वेन ने नोबेल शांति पुरस्कार के पूरे इतिहास में इसे सबसे खराब पुरस्कार करार दिया। एस्ले स्वेन बताते है कि 16 अक्टूबर, 1973 को नोबेल शांति पुरस्कार के नामों की घोषणा हुई, जिसने सभी को हैरान कर दिया।

इन दो नामों से बढ़ा विवाद

नॉर्वेजियन नोबेल समिति ने किसिंजर और ले डक थो को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया था। दोनों को ये पुरस्कार 1973 में वियतनाम में संयुक्त रूप से युद्धविराम पर बातचीत करने और आम सहमति बनाने के लिए मिला था। 27 जनवरी, 1973 को इस जोड़ी ने वियतनाम में युद्धविराम के लिए पेरिस शांति समझौते पर भी हस्ताक्षर किए थे।

यह भी पढ़े: मोस्ट वांटेड आतंकी शाहनवाज को Delhi Police की स्पेशल सेल ने पकड़ा, NIA ने रखा था तीन लाख का इनाम

जब नोबेल समिति के दो सदस्यों ने दे डाला था इस्तीफा

एस्ले स्वेन ने AFP को बताया कि दोनों देशों के अधिकारियों के बीच कोई शांति समझौता नहीं हुआ था बल्कि एक संघर्षविराम हुआ था। यह अमेरिका के लिए वियतनाम में अपने सैनिकों को दलदल से निकालने का बड़ा अवसर था। अमेरिका और वियतनाम के अधिकारियों को दिए गए शांति पुरस्कार ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया था। ये नोबेल शांति पुरस्कार के इतिहास में पहली बार ही हुआ था कि नोबेल समिति के दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था।

'नोबेल युद्ध पुरस्कार'

न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसे 'नोबेल युद्ध पुरस्कार' करार दिया था और एक संपादकीय भी पब्लिश किया। जबकि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों ने नॉर्वेजियन संसद की आलोचना की। वहीं, अमेरिकी व्यंग्य सिंगर टॉम लेहरर ने इसे 'राजनीतिक व्यंग्य अप्रचलित हो गया।' बताया था।

100 वर्ष के हो चुके किसिंजर

100 वर्ष के हो चुके किसिंजर की भी आलोचना हुई। उन पर पड़ोसी देश कंबोडिया में युद्ध फैलाने और हनोई में बड़े पैमाने पर बमबारी का आदेश देने का आरोप लगाया गया था। इसके अलावा चिली में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति साल्वाडोर अलेंदे के खिलाफ ऑगस्टो पिनोशे के तख्तापलट का समर्थन करने के लिए भी उन पर आलोचना हो रही थी। भारी विरोध प्रदर्शन का सामना कर रहे किसिंजर ने यह कहकर पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया कि वह नाटो की बैठक में शामिल होने के कारण ओस्लो नहीं आ सकते। 1975 में साइगॉन के पतन के बाद, उन्होंने अपना पुरस्कार समिति को वापस भेजने की कोशिश की, जिसने इसे अस्वीकार कर दिया।

नोबेल शांति पुरस्कार अस्वीकार करने वाले एकमात्र व्यक्ति

वहीं, वियतनाम के मुख्य शांति वार्ताकार ले डक थो एक कट्टरपंथी थे, जो 1975 में दक्षिण वियतनाम पर आक्रमण की तैयारी कर रहे थे। ले डक थो आज तक नोबेल शांति पुरस्कार अस्वीकार करने वाले एकमात्र व्यक्ति हैं। ले डक थो ने शांति पुरस्कार समिति को एक टेलीग्राम में लिखा था, 'जब वियतनाम पर पेरिस समझौते का सम्मान किया जाता, बंदूकें और दक्षिण वियतनाम में वास्तव में शांति बहाल हो जाती है, तब मैं इस पुरस्कार की स्वीकृति पर विचार करूंगा।'

यह भी पढ़े: 'स्वच्छ भारत अभियान को सामाजिक आंदोलन के रूप में लिया जाना चाहिए', सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस संजीव खन्ना बोले